Saturday 5 July 2008

अच्छा हुआ तुम मर गईं आरुषि

मैं एक प्रतिष्ठित दैनिक में काम करता हूँ। काम क्या करता हूँ, ख़बरों की लाशों को कालमों के ताबूत में दफ़न कर के उन पर हेड लाइंस की पट्टियाँ ठोंक देता हूँ। कफ़न के हिसाब से लाशों को कांट-छांट देता हूँ।
आरुषि... आरुषि... आरुषि। दो महीने हो गए, इस लड़की की ख़बर और उसकी लाश की फोटो आज भी सेलेबल है। पन्ना हो या स्क्रीन। लेकिन अभी परसों शाम बड़ा झटका लगा मुझे। नेट पर एक तस्वीर आरुषि के मर्डर से जुड़ी दिखाई दी। 'एक्सक्लूसिव' तस्वीर। खून के छींटे, बिखरे बाल, बेजान हाथ... दोबारा उधर नज़र नहीं गई।
मेरे एक अज़ीज़ सहकर्मी की निगाह उस पर पड़ी तो वे व्याकुल हो उठे। आप ग़लत समझे... । शब्दों को फ़िर से पढ़िये। उन्हें यह तस्वीर चाहिए थी। वह उसका प्रिंट लेना चाहते थे। मैंने उनके चेहरे की तरफ़ देखा, उनकी आंखों में ऐसी विद्रूप चमक थी, जिसे समझ कर भी मैं समझना नही चाहता था। उन्हें बेजान शरीर और खून के धब्बे नहीं लाश का उघड़ा हुआ शरीर नज़र आ रहा था। मैंने अपने चारों ओर देखा तो लगा हम सभी के आस्तीनों पर आरुषि का खून है।
सच मानिये बड़ी तसल्ली हुई की आरुषि मर गई। मन ने कहा काश अपना शरीर भी साथ ले जाती। ... अगर जिंदा रहती तो हम भेडियों की भीड़ से कब तक बचती आरुषि? इसी तरह गोवा बीच पर पाई गई स्कारलेट कीलिंग की लाश भी लोगों को खुश करती रही।
हम खबरें बनाते हैं, पढ़ते हैं, स्क्रीन पर बहस करते हैं, हत्यारों, दरिंदों को पकड़ने की बात करते हैं। लेकिन... डेस्क से उठते ही, कैमरा ऑफ़ होते ही दरिंदों की इसी भीड़ में शामिल हो जाते हैं। रोज चिंता जताई जाती है। स्त्री-पुरूष अनुपात बिगड़ रहा है। सच है, औरत, हम नहीं चाहते तुम मरो, तुम्हे मरने का कोई हक़ नहीं है। तुम्हे तो यातना शरीर मिलना चाहिए ताकि तुम अनंतकाल तक जियो, और तुम्हें रौंद कर हम खुश होते रहें।
मन कहता है, अगर यह संतुलन बिगड़ रहा है तो कम से कम हैवानों की बढती नस्ल में कुछ कमी तो आएगी। माँ, अब तुम अवतार और पैगम्बरों को जन्म नही दे रही हो।
बस, इसीलिए राहत होती है आरुषि की तुम चली गईं, पर बेहतर होता अपना शरीर भी लेती जातीं। हम इसकी भी कद्र नहीं कर पा रहे हैं।

Thursday 26 June 2008

बावफ़ा मौत (समग्र)

जिंदगी से ज्यादा बेवफा कुछ भी नहीं,
जिंदगी भर जिंदगी भागती है
आगे-आगे,
पीछे-पीछे हाथ फैलाये हम।
लेकिन सब्र किए
हर एक कदम पर
हमारे पीछे-पीछे चलती रहती है
मौत।
मौत, जिससे बचते फिरते हैं हम,
दौड़ते हैं जिंदगी की छाया के पीछे।

वहीँ मौत पूरे इत्मिनान से
एक-एक साँस का हिसाब रखती है।
.....
जब दोनों कोहनियों के बीच
सर को छुपाये हम
एक-एक उजडती साँस को
टूटे हुए शरीर में रोपने की
नामुमकिन कोशिश करते हैं,
तब भी हमारी इस जीतोड़ कोशिश पर
कोने में खड़ी मौत
मुस्कुराती है।
.....
जब सारी दुनिया मगन है जिंदगी के
छलावे, राग- रंग में
तब टूटे हुए शरीर और
थमती साँसों के अकेलेपन की
एकमात्र साथिन है
मौत।
वह बहुत नज़दीक रहती है
हाथ बढ़ा कर छू सकते हैं उसे हम,
लेकिन डरते हैं...
मौत से, उसकी निश्चितता से
और अनिश्चिततापूर्ण जिंदगी की तरफ़
भागते हैं अँधाधुंध।
.......
क्यों न पीछे पलट कर
हाथ पकड़ लें इस इस डर का,
मौत का।
जीत लें दिल मौत का
और फ़िर दोनों मिल कर
जियें जिंदगी को, पीछा करें जिंदगी का बेखौफ।

बेकुसूर मौत

जिंदगी
अपने नुकीले दांतों में फंसे
हमारे शरीर को
कुचल-कुचल कर,
स्वाद ले-ले कर
चबाती है
अन्तिम साँस तक।
फिर...
उगल देती है बेजान लाश
और...हम
सारा दोष मढ़ देते हैं
मौत के माथे।

Wednesday 25 June 2008

आँखों में चुभता अँधेरा

पिछले रविवार से अजीब से घटनाओं की सुरंग से गुजर रहा हूँ। चरों तरफ़ घना काला अँधेरा छाया है। घटनाएँ घट रही हैं, कुछ पुराने रंग चढ़ रहे हैं कुछ उतर रहे हैं। एक हमजाये का दर्द महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ। दवा तो नही ला सकता इसलिए ख़ुद दर्द की डगर पर साथ चलने की छोटी सी कोशिश भर कर रहा हूँ। चूंकि अभी घना घटाटोप अँधेरा है इसलिए आप सब के साथ कुछ ज्यादा नहीं बाँट सकता। कुछ नज़र आते ही ज़रूर आपका सहारा लूँगा।

Saturday 21 June 2008

दुनिया

ये दुनिया छोटी होते-होते
इतनी बड़ी हो गई है कि,
किसी को देखने के लिए तरसा करें उम्र भर,
इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह इस जहाँ से चला जाए,
आज कल तो सिर्फ़ कमरे भर बदल लेना ही काफी होता है।

इच्छाधारी गधा

अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि आम आदमी की जिंदगी में ...