जिंदगी से ज्यादा बेवफा कुछ भी नहीं,
जिंदगी भर जिंदगी भागती है
आगे-आगे,
पीछे-पीछे हाथ फैलाये हम।
लेकिन सब्र किए
हर एक कदम पर
हमारे पीछे-पीछे चलती रहती है
मौत।
मौत, जिससे बचते फिरते हैं हम,
दौड़ते हैं जिंदगी की छाया के पीछे।
वहीँ मौत पूरे इत्मिनान से
एक-एक साँस का हिसाब रखती है।
.....
जब दोनों कोहनियों के बीच
सर को छुपाये हम
एक-एक उजडती साँस को
टूटे हुए शरीर में रोपने की
नामुमकिन कोशिश करते हैं,
तब भी हमारी इस जीतोड़ कोशिश पर
कोने में खड़ी मौत
मुस्कुराती है।
.....
जब सारी दुनिया मगन है जिंदगी के
छलावे, राग- रंग में
तब टूटे हुए शरीर और
थमती साँसों के अकेलेपन की
एकमात्र साथिन है
मौत।
वह बहुत नज़दीक रहती है
हाथ बढ़ा कर छू सकते हैं उसे हम,
लेकिन डरते हैं...
मौत से, उसकी निश्चितता से
और अनिश्चिततापूर्ण जिंदगी की तरफ़
भागते हैं अँधाधुंध।
.......
क्यों न पीछे पलट कर
हाथ पकड़ लें इस इस डर का,
मौत का।
जीत लें दिल मौत का
और फ़िर दोनों मिल कर
जियें जिंदगी को, पीछा करें जिंदगी का बेखौफ।
मेरी जिंदगी एक कैनवस की तरह है। जिसमें शब्द कम है और चित्र ढेरों-ढेर। नहीं मालूम आपके लिए यह क्या है पर मेरा तो यही सच है।
Thursday 26 June 2008
बेकुसूर मौत
जिंदगी
अपने नुकीले दांतों में फंसे
हमारे शरीर को
कुचल-कुचल कर,
स्वाद ले-ले कर
चबाती है
अन्तिम साँस तक।
फिर...
उगल देती है बेजान लाश
और...हम
सारा दोष मढ़ देते हैं
मौत के माथे।
अपने नुकीले दांतों में फंसे
हमारे शरीर को
कुचल-कुचल कर,
स्वाद ले-ले कर
चबाती है
अन्तिम साँस तक।
फिर...
उगल देती है बेजान लाश
और...हम
सारा दोष मढ़ देते हैं
मौत के माथे।
Wednesday 25 June 2008
आँखों में चुभता अँधेरा
पिछले रविवार से अजीब से घटनाओं की सुरंग से गुजर रहा हूँ। चरों तरफ़ घना काला अँधेरा छाया है। घटनाएँ घट रही हैं, कुछ पुराने रंग चढ़ रहे हैं कुछ उतर रहे हैं। एक हमजाये का दर्द महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ। दवा तो नही ला सकता इसलिए ख़ुद दर्द की डगर पर साथ चलने की छोटी सी कोशिश भर कर रहा हूँ। चूंकि अभी घना घटाटोप अँधेरा है इसलिए आप सब के साथ कुछ ज्यादा नहीं बाँट सकता। कुछ नज़र आते ही ज़रूर आपका सहारा लूँगा।
Saturday 21 June 2008
दुनिया
ये दुनिया छोटी होते-होते
इतनी बड़ी हो गई है कि,
किसी को देखने के लिए तरसा करें उम्र भर,
इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह इस जहाँ से चला जाए,
आज कल तो सिर्फ़ कमरे भर बदल लेना ही काफी होता है।
इतनी बड़ी हो गई है कि,
किसी को देखने के लिए तरसा करें उम्र भर,
इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह इस जहाँ से चला जाए,
आज कल तो सिर्फ़ कमरे भर बदल लेना ही काफी होता है।
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इच्छाधारी गधा
अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि आम आदमी की जिंदगी में ...
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मैं एक प्रतिष्ठित दैनिक में काम करता हूँ। काम क्या करता हूँ, ख़बरों की लाशों को कालमों के ताबूत में दफ़न कर के उन पर हेड लाइंस की पट्टियाँ...