Monday 24 March 2014

अगले जनम मोहे बेटा न कीजो



‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।

इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब ऑफिस में अपनी सीनियर और साथ काम करने वाली दोस्त से एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।

क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।

इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं। इन तीन महीनों में मुझे लगा कि मैं नरभक्षी राक्षसों के बीच जी रहा हूं, अगर इनके बीच सारी उम्र काटनी पड़ती तो...? कांप उठता हूं। हां, हम दोगले भी हैं, जैसे ही कोई लड़की अगल-बगल दिखती थी, हममें से कुछ तो शालीनता की चादर ओढ़ लेते, कुछ को तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता था।

इस दौरान मैंने हमें जनम देने वाली ‘शैतान की बेटी’ को और करीब से जानने की कोशिश की। दिल्ली एक बेरहम महानगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।

मैंने देखा हर बार मर्दों की खड़ी दीवार ने इनके कद को और बढ़ा दिया है। एक और अजीब बात, मैंने हर लड़की को जिंदगी का एक-एक पल बिंदास होकर जीते देखा, वजह ... उन्हें पता नहीं कि अगले पल उनकी जिंदगी का क्या होगा। इसी सबके दौरान वे अपने सपने, शौक और जुनून को जिंदा रखे हुए थीं। कमरतोड़ 10 घंटों की नौकरी के बाद अगले 10 घंटे एक पैर पर खड़े-खड़े बिता देतीं, महज इसलिए कि... वह उन्हें रूटीन से आजादी देता है, पल भर के लिए हवा के ताजा झोंके की तरह। इस सबके मूल में यह था, कल को पता नहीं किसके पल्ले बंधना पड़े, न जाने कौन पर कतर दे। अब जा कर पता लगा कि मर्दों की जिंदगी तो 60, 70, 80 बरस की होती है, लेकिन इन लड़कियों की जिंदगी बस 25-26 तक। यानी तब तक जब तक गृहस्थी की उम्रकैद नहीं शुरू हो जाती। चौंक गए, हमारी-आपकी मांएं इसी गृहस्थी की चारदीवारी में बंद कैदी हैं। वे भूल गई हैं, इसके बाहर भी दुनिया बसती है। उन्हें जरा इस लोहे के फाटक से बाहर खड़ा करके तो देखिए, अबोध बच्चे की तरह लडख़ड़ा कर बैठ जाएंगी, मुमकिन है खुद लौटकर इसी जेल का दरवाजा खटखटाकर अंदर आने की गुहार लगाएं।

इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।

उफ्फ, कैसे इतनी दीवारें खींच लीं हमने। मर्द-औरत अलग-अलग ग्रहों से नहीं आए हैं। फिर यह अविश्वास क्यों? मुझे तो लगता है, मर्द डरे हुए हैं औरतों से, मौन रहकर दर्द सहने की उसकी क्षमता से, अपने जीवन की बाजी लगाकर एक नई जिंदगी को इस दुनिया में लाने की ताकत से। इंद्र का भी सिंहासन कांप उठा होगा कि कहीं कोई औरत न उस पर काबिज हो जाए। तबसे ही पैदा होते ही लड़की को एक झूठे प्रचार का सामना करना पड़ता है, प्रोपैगंडा का सामना करना पड़ता है, उसे समझाया जाता है कि वह कितनी अबला और असुरक्षित है। खैर...

पर मेरा तर्क फिर सिर उठाता है - दोस्त, सभी मर्द, लड़के एक जैसे नहीं होते। देखो, मैं बिल्कुल वैसा नहीं हूं, क्योंकि मुझे तुमने ही गढ़ा है। मेरी मां, मेरी तीनों बहनों ने मुझे ऐसा बनाया है कि मैं इस दर्द को महसूस कर सकता हूं, फिर मुझे दोषियों की कतार में क्यों खड़ा कर देती हो? और... मेरे पापा भी वैसे नहीं हैं, अपने कुनबे में अफीम चटाकर मौत की नींद सुला दी जातीं लड़कियों को जिंदगी देने के लिए उन्होंने लड़कपन में ही जीतोड़ कोशिश की और कामयाबी भी पाई। मेरी एक बुआ को तो वह गांव के बाहर कचरे के ढेर से उठाकर लाए थे।

लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।

जाते-जाते एक बात और... साहिर लुधियानवी की मशहूर नज्म "औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया" को लता मंगेशकर ने साधना फिल्म के लिए गाया था। इस गाने को यूट्यूब पर सुनने के लिए । औरतों पर इतना बेहतरीन गीत एक महिला की आवाज़ में सुनकर शायद आपकी आंखों में भी आंसू आ जाएं। और यह सोचकर अच्छा लगता है कि यह गीत एक मर्द - साहिर लुधियानवी - ने लिखा था।

इच्छाधारी गधा

अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि आम आदमी की जिंदगी में ...