Monday 6 March 2017

इच्छाधारी गधा

अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि आम आदमी की जिंदगी में गधों का महत्व घटता जा रहा है नतीजे में गधों की पैदावार बढ़ाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है इसलिए गधे कम होते जा रहे हैं। आंकड़ों की मानें तो 27 फीसदी सालाना की दर से गधे गायब होते जा रहे हैं। न मानें तो हम आपका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते। लेकिन ख़ुशी की बात है कि 2017 के यूपी के विधानसभा चुनावों ने गधों के प्रति आम आदमी की जागरुकता बढ़ाने में काफी योगदान दिया है। यह योगदान इस स्तर का है कि आने वाले समय में इस काल को गधों के पुनरूत्थान के लिए किए गए प्रयासों का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। मतलब देश का दिल कहलाने वाले प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री, एक ऐतिहासिक राजनीतिक दल के चिरयुवा युवराज, सवा सौ करोड़ भाई-बहनों और मितरों के दिल पर राज करने वाले देश के प्रधानमंत्री, छोटे-बड़े नेता-नेती और इनके साथ टीवी चैनल, अखबार, सोशल मीडिया सब गधामय होकर गधे जैसे टॉपिक पर लहलोट हुए जा रहे हैं। जानकारों का कहना है कि संयुक्तराष्ट्र समेत तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन करोड़ों डॉलर भी खर्च करते तो गधे पर इस स्तर का शिखर सम्मेलन आयोजित नहीं करा पाते।

इस ज्ञान चर्चा की शुरूआत, जैसे कि हमेशा से होता आया है एक मासूम से लगने वाले बयान से हुई। युवा मुख्यमंत्री ने सदी के सबसे बड़े महानायक से अपील की कि वे गुजराती गधों का विज्ञापन करना बंद कर दें। अपने मन की छोटी से छोटी बात भी अपने मन में ना रखने वाले लोकप्रिय प्रधानमंत्री ने एक जनसभा में ललकारते हुए कहा, ‘मितरों! गधा हमें प्रेरणा देता है, वह हमेशा अपने मालिक के प्रति वफादार होता है और जिम्मेदारियों को निभाता है। मैं भी देश के लिए गधे की तरह काम करता हूं।गधों पर मन की इस बात के बाद अब तक गधों पर लगभग मन भर बातें हो चुकी हैं।

गधों के महिमामंडन के बीच गधों के मानवाधिकारों के लिए विश्व स्तर पर काम करने वाली संस्था के एक उच्चाधिकारी ने बयान भी दिया। उन्होंने गधों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए कहा, गधा अपशब्द नहीं है एक उपमा है क्योंकि गधे जितना ईमानदार, जिम्मेदार, वफादार और मेहनती शायद ही कोई दूसरा जानवर होता है। यह चर्चा सुनकर एक बार तो मुझे भी खुद पर थोड़ा घमंड सा होने लगा कि मम्मी बचपन से यूं ही मुझे गधा नहीं कहती आ रही हैं। मुझे यह अफसोस होना भी बंद हो गया कि आखिर क्यों मेरी बीवी मन ही मन मुझे पढ़ा-लिखा गधा समझती है।

बहरहाल, इस गधेपूर्ण माहौल में मैंने एक पढ़े-लिखे, सभ्रांत व्यक्ति से उनकी राय लेनी चाही। मैंने जिस बेबाकी से उनसे सवाल पूछा उससे दोगुनी बेबाकी से उन्होंने जवाब देते हुए कहा, जानते हो पहले के जमाने में इच्छाधारी नाग-नागिन होते थे आज हमारे जमाने में इच्छाधारी गधा है। इस ब्रेकिंग न्यूज ने हमारे कान खड़े कर दिए। हमारे ज्यादा घुसने पर उन्होंने एक युवा नेता का नाम लेते हुए कहा कि वह जब चाहे गधा बनकर गधेवाली हरकतें करने लगते हैं और जब चाहे वापस अपने इंसानी रूप में आ जाते हैं। उनका जवाब सुनकर हम तुरंत कट लिए क्योंकि उनकी इस मौलिक कल्पना से उनके एक सहकर्मी की राजनीतिक भावनाओं को काफी ठोस किस्म की ठेस लगी और वे इस शास्त्रार्थ को शारीरिक स्तर पर संपन्न करने की चेष्टा करने लगे।

भाइयों और बहनों ऐसा नहीं है कि गधे पर यह चर्चा इतिहास में पहली बार हुई है। बल्कि समय-समय पर ऐसा होता रहा है, इसके प्रमाण साहित्य में मिलते हैं। एक समय में पं. सूर्यनारायण व्यास ने गधे का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अध्ययननामक लेख लिखा। पद्मभूषण सूर्यनारायण व्यास जी के बारे में कहा जाता है कि भारत की आजादी से पहले खुद राष्ट्रीय नेताओं ने उनसे मिलकर देश के आजाद होने का मुहूर्त पूछा था। तब पंडित जी ने 14/15 अगस्त की रात 12 बजे बाद का मुहूर्त तय किया। पाकिस्तानी नेताओं को ज्योतिष में कोई खास भरोसा नहीं था सो 14 अगस्त को ही झंडा फहरा दिया। आज देखिए पाकिस्तान कहां और भारत कहां है। जानकारों का कहना है कि पंडित जी बहुत बड़े वाले ज्योतिषी थे और उन्होंने तमाम ऐसी भविष्यवाणियां की थीं जो बाद में सच साबित हुईं। उन्हीं में से एक है कि 2020 में भारत विश्वशक्ति बन जाएगा। खैर, जो हुआ सो हुआ वापस गधे पर आते हैं। मशहूर कथाकार कृश्नचंदर गधे से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने एक के बाद एक एक गधे की आत्मकथा‘, ‘एक गधा नेफा मेंऔर एक गधे की वापसीजैसे ग्रंथ लिखे। बाद में इन्हीं से प्रभावित होकर विश्वविख्यात बॉलिवुड डायरेक्टर रोहित शेट्टी ने गोलमाल, गोलमाल रिटर्न्स और गोलमाल 3 नामक महान फिल्में बनाईं।

पाठकों ऐसा कतई नहीं है कि गधा हमेशा से गधा रहा है। एक कवि ने कहा था, गधा सचमुच गधा नहीं था, पर जब से आदमी ने उसे गधा कहा वह गधा हो गया। लाइनें बड़ी मस्त हैं लेकिन यह समझ नहीं आ रहा है कि मामला मानहानि का बन रहा है या गधे की तारीफ की जा रही है। बहरहाल, इतना तो तय है कि गधा काफी मशहूर जंतु रहा है। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण में गधे का इंद्र और अग्नि के वाहन के रुप में जिक्र है। हजरत मूसा और ईसा भी गधे को सवारी के तौर पर इस्तेमाल करते थे। हिंदू धर्म में माता शीतला भी गधे को वाहन के तौर पर प्रयोग करती हैं। वाहन के तौर पर गधे के मशहूर होने के कई वाजिब कारण थे। ना ऑटो लोन, ना ईएमआई, ना हर तिमाही महंगे होने वाले पेट्रोल की चिंता, ना सर्विसिंग की खटखट, जीरो मेंटिनेंस, माइलेज भी एकदम झक्कास, ऑटो पायलट सुविधा से युक्त, हॉर्न इतना तेज की हर सवारी पास दे दे, बोर हो रहे हों तो दो मिनट गधे से उतर कर उसे जी भरकर निहार लें और आधा घंटा हंस लें, श्रोता इतना अच्छा कि एक गजल क्या पूरी किताब इसे सुना दें बंदा पूरी तन्मयता से आखिरी लाइन तक आपके सामने सिर झुकाए सुनता रहेगा। रोडरेज का केस हो तो आपका गधा खुद ब खुद दुलत्ती झाडकर आपके विरोधी पक्ष का मान मर्दन कर देगा, डीएल-आरसी आपसे कोई मांगेगा नहीं, प्रदूषण नियंत्रण चेक करने वालों का मुंह यह अपनी दुलत्ती से प्रदूषित करके बंद कर देगा। बाद में इटली की एक कंपनी इन्नोसेंटी ने भी इसी से प्रेरित होकर लंब्रेटा नामक एक स्कूटर मार्केट में उतारा था जिसकी नकल करके बजाज बाबू ने चेतक इत्यादि, इत्यादि मॉडल बनाए। भारत सरकार ने गधों से प्रेरित होकर लंब्रेटा बनाने वाली कंपनी खरीदी, उसे स्कूटर इंडिया लिमिटेड नाम दिया और माल व सवारी ढोने के लिए आधुनिक व मशीनी गधों का निर्माण किया जिन्हें हम और आप आज ‘विक्रम’ नाम से जानते हैं।

एक किंवदंती है कि सम्राट विक्रमादित्य के भाई गंधर्वसेन किसी श्राप के कारण दिन में गधा और रात में मनुष्य बनकर रहते थे। खैर श्राप देने वाले ने उनपर बड़ी कृपा की वरना मामला उलटा हो गया होता तो व्यर्थ ही बेचारे का तलाक हो जाता। वैसे इतिहास के एक मौलिक जानकार का कहना है कि दरअसल गंधर्वसेन किसी प्राइवेट कंपनी के इंप्लाई हो गए होंगे जहां दिन भर गधे की तरह काम करते होंगे और ऑफिस से छूटते ही थके-मांदे मनुष्य के रूप में घर पहुंच जाते होंगे। मामले को दबाने के लिए कथाकारों ने इस तथ्य को बदल दिया और प्राइवेट कंपनी की जॉब को श्राप के रूप में चर्चित कर दिया।

अगर आप ठोस इतिहास में अधिक भरोसा करते हैं तो आपको यह जानकर खुशी होगी कि कुछ समय पहले कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ इजिप्ट में एक शाही कब्रिस्तान की खुदाई कर रहे थे। वहां उन्हें पांच हजार साल पुराने 10 गधों के कंकाल मिले। विद्वानों का कहना है कि इन गधों को ऐसे दफनाया गया है मानो ये कोई आला अधिकारी रहे हों। इसका क्या मतलब है इस पर इन विद्वानों ने ज्यादा खुलकर नहीं लिखा है। हो सकता है कि इन गधों के साथ इनके ब्रीफकेस, बोर्ड मीटिंग में उठाए जाने वाले जरूरी पॉइंट्स की लिस्ट और शैंपेन की बोतलें वगैरह भी मिली हों।

इस पूरी चर्चा के बाद हमारे दिमाग में दो बातें उठती हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे पूर्वज बंदर ना होकर गधे रहे हों। मैं अपने नहीं सभी मनुष्यों की बात कर रहा हूं। दूसरी बात यह है कि गधों की ईमानदारी, स्वामिभक्ति (सुब्रमण्यम स्वामी नहीं) की इतनी चर्चा से कुत्ते डिमॉरलाइज हो सकते हैं। आखिर कुत्तों को इंसान का सबसे बेहतरीन और वफादार दोस्त कहा गया है। ऐसे में ज्यादा नहीं तो कम से कम 12 बरस में एक बार ही सही चाय पर चर्चाकी तर्ज पर कुत्तों पर भी चर्चा होती रहनी चाहिए। अंत में हम फिर गुजराती गधों पर आते हैं जहां से पूरी बहस शुरू हुई थी। हमारे एक मित्र जो डोनेशन के दम पर किसी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में पढ़ने के लिए गुजरात गए थे, ने एक रोचक बात बताई। उनका कहना था कि वहां गधे बहुत ज्यादा हैं, इसलिए गधों की तादाद कम करने के लिए लोगों ने एक अनोखा तरीका खोज निकाला है। वहां नर गधों को इकट्ठा करके मादा गधों से बहुत दूर किसी इलाके में छोड़ दिया जाता है। इन लाइनों के लिखे जाने के समय मुझे लग रहा है कि यह समाधान अनोखा होने के साथ काफी बेरहम है और गधे आमतौर पर शायद इसीलिए उदास से दिखाई देते हैं।

इच्छाधारी गधा

अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि आम आदमी की जिंदगी में ...