tag:blogger.com,1999:blog-85941324258756706732024-03-13T18:50:43.534+05:30जिंदगी का कैनवसमेरी जिंदगी एक कैनवस की तरह है। जिसमें शब्द कम है और चित्र ढेरों-ढेर। नहीं मालूम आपके लिए यह क्या है पर मेरा तो यही सच है।आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.comBlogger7125tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-27099160720228366802017-03-06T11:13:00.000+05:302017-03-06T11:59:13.814+05:30इच्छाधारी गधा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal">
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<a href="https://1.bp.blogspot.com/--VYXVPb_ba4/WL0BD-o5BdI/AAAAAAAAJWs/At_W5SqaA-IPiQQ7M1A4elyn_KLm2-xwACLcB/s1600/laughing_donkey.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="313" src="https://1.bp.blogspot.com/--VYXVPb_ba4/WL0BD-o5BdI/AAAAAAAAJWs/At_W5SqaA-IPiQQ7M1A4elyn_KLm2-xwACLcB/s320/laughing_donkey.jpg" width="320" /></a><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">अभी पिछले दिनों एक खोजी लेखक ने गधों
की घटती संख्या पर अच्छा खासा लेख लिख मारा। लेखक की चिंता इस बात को लेकर थी कि
आम आदमी की जिंदगी में गधों का महत्व घटता जा रहा है नतीजे में गधों की पैदावार
बढ़ाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है इसलिए गधे कम होते जा रहे हैं। आंकड़ों की
मानें तो </span>27<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> फीसदी सालाना की दर से गधे गायब होते जा रहे
हैं। न मानें तो हम आपका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते। लेकिन ख़ुशी की बात है कि </span>2017<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> के
यूपी के विधानसभा चुनावों ने गधों के प्रति आम आदमी की जागरुकता बढ़ाने में काफी योगदान
दिया है। यह योगदान इस स्तर का है कि आने वाले समय में इस काल को गधों के
पुनरूत्थान के लिए किए गए प्रयासों का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। मतलब देश का
दिल कहलाने वाले प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक ऐतिहासिक
राजनीतिक दल के चिरयुवा युवराज</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">सवा सौ करोड़ भाई-बहनों और मितरों के
दिल पर राज करने वाले देश के प्रधानमंत्री</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">छोटे-बड़े
नेता-नेती और इनके साथ टीवी चैनल</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">अखबार</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">सोशल मीडिया सब
गधामय होकर गधे जैसे टॉपिक पर लहलोट हुए जा रहे हैं। जानकारों का कहना है कि
संयुक्तराष्ट्र समेत तमाम अंतर्राष्ट्रीय संगठन करोड़ों डॉलर भी खर्च करते तो गधे
पर इस स्तर का शिखर सम्मेलन आयोजित नहीं करा पाते। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
</div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इस ज्ञान चर्चा की शुरूआत</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जैसे
कि हमेशा से होता आया है एक मासूम से लगने वाले बयान से हुई। युवा मुख्यमंत्री ने
सदी के सबसे बड़े महानायक से अपील की कि वे गुजराती गधों का विज्ञापन करना बंद कर
दें। अपने मन की छोटी से छोटी बात भी अपने मन में ना रखने वाले लोकप्रिय
प्रधानमंत्री ने एक जनसभा में ललकारते हुए कहा</span>, ‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">मितरों! गधा
हमें प्रेरणा देता है</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वह हमेशा अपने मालिक के प्रति वफादार होता है
और जिम्मेदारियों को निभाता है। मैं भी देश के लिए गधे की तरह काम करता हूं।</span>‘
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गधों
पर मन की इस बात के बाद अब तक गधों पर लगभग मन भर बातें हो चुकी हैं। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गधों के महिमामंडन के बीच गधों के
मानवाधिकारों के लिए विश्व स्तर पर काम करने वाली संस्था के एक उच्चाधिकारी ने
बयान भी दिया। उन्होंने गधों के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए कहा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गधा
अपशब्द नहीं है एक उपमा है क्योंकि गधे जितना ईमानदार</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जिम्मेदार</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">वफादार
और मेहनती शायद ही कोई दूसरा जानवर होता है। यह चर्चा सुनकर एक बार तो मुझे भी खुद
पर थोड़ा घमंड सा होने लगा कि मम्मी बचपन से यूं ही मुझे गधा नहीं कहती आ रही हैं।
मुझे यह अफसोस होना भी बंद हो गया कि आखिर क्यों मेरी बीवी मन ही मन मुझे
पढ़ा-लिखा गधा समझती है। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बहरहाल</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इस गधेपूर्ण
माहौल में मैंने एक पढ़े-लिखे</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">सभ्रांत व्यक्ति से उनकी राय लेनी
चाही। मैंने जिस बेबाकी से उनसे सवाल पूछा उससे दोगुनी बेबाकी से उन्होंने जवाब
देते हुए कहा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जानते हो पहले के जमाने में इच्छाधारी
नाग-नागिन होते थे आज हमारे जमाने में इच्छाधारी गधा है। इस ब्रेकिंग न्यूज ने
हमारे कान खड़े कर दिए। हमारे ज्यादा घुसने पर उन्होंने एक युवा नेता का नाम लेते
हुए कहा कि वह जब चाहे गधा बनकर गधेवाली हरकतें करने लगते हैं और जब चाहे वापस
अपने इंसानी रूप में आ जाते हैं। उनका जवाब सुनकर हम तुरंत कट लिए क्योंकि उनकी इस
मौलिक कल्पना से उनके एक सहकर्मी की राजनीतिक भावनाओं को काफी ठोस किस्म की ठेस
लगी और वे इस शास्त्रार्थ को शारीरिक स्तर पर संपन्न करने की चेष्टा करने लगे। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">भाइयों और बहनों ऐसा नहीं है कि गधे पर
यह चर्चा इतिहास में पहली बार हुई है। बल्कि समय-समय पर ऐसा होता रहा है</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इसके
प्रमाण साहित्य में मिलते हैं। एक समय में पं. सूर्यनारायण व्यास ने </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गधे
का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अध्ययन</span>‘ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">नामक लेख लिखा। पद्मभूषण सूर्यनारायण
व्यास जी के बारे में कहा जाता है कि भारत की आजादी से पहले खुद राष्ट्रीय नेताओं
ने उनसे मिलकर देश के आजाद होने का मुहूर्त पूछा था। तब पंडित जी ने </span>14/15<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">
अगस्त की रात </span>12<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> बजे बाद का मुहूर्त तय किया। पाकिस्तानी
नेताओं को ज्योतिष में कोई खास भरोसा नहीं था सो </span>14<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> अगस्त को ही
झंडा फहरा दिया। आज देखिए पाकिस्तान कहां और भारत कहां है। जानकारों का कहना है कि
पंडित जी बहुत बड़े वाले ज्योतिषी थे और उन्होंने तमाम ऐसी भविष्यवाणियां की थीं
जो बाद में सच साबित हुईं। उन्हीं में से एक है कि </span>2020<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> में भारत
विश्वशक्ति बन जाएगा। खैर</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जो हुआ सो हुआ वापस गधे पर आते हैं।
मशहूर कथाकार कृश्नचंदर गधे से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने एक के बाद एक </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक
गधे की आत्मकथा</span>‘, ‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक गधा नेफा में</span>‘ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">और </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक
गधे की वापसी</span>‘ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जैसे ग्रंथ लिखे। बाद में इन्हीं से प्रभावित
होकर विश्वविख्यात बॉलिवुड डायरेक्टर रोहित शेट्टी ने गोलमाल</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गोलमाल
रिटर्न्स और गोलमाल </span>3<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"> नामक महान फिल्में बनाईं। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">पाठकों ऐसा कतई नहीं है कि गधा हमेशा
से गधा रहा है। एक कवि ने कहा था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">गधा सचमुच गधा नहीं था</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">पर
जब से आदमी ने उसे गधा कहा वह गधा हो गया। लाइनें बड़ी मस्त हैं लेकिन यह समझ नहीं
आ रहा है कि मामला मानहानि का बन रहा है या गधे की तारीफ की जा रही है। बहरहाल</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इतना
तो तय है कि गधा काफी मशहूर जंतु रहा है। अथर्ववेद</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ऐतरेय ब्राह्मण
में गधे का इंद्र और अग्नि के वाहन के रुप में जिक्र है। हजरत मूसा और ईसा भी गधे
को सवारी के तौर पर इस्तेमाल करते थे। हिंदू धर्म में माता शीतला भी गधे को वाहन
के तौर पर प्रयोग करती हैं। वाहन के तौर पर गधे के मशहूर होने के कई वाजिब कारण
थे। ना ऑटो लोन</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ना ईएमआई</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ना हर तिमाही
महंगे होने वाले पेट्रोल की चिंता</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ना सर्विसिंग की खटखट</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">जीरो
मेंटिनेंस</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">माइलेज भी एकदम झक्कास</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ऑटो पायलट
सुविधा से युक्त</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">हॉर्न इतना तेज की हर सवारी पास दे दे</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बोर
हो रहे हों तो दो मिनट गधे से उतर कर उसे जी भरकर निहार लें और आधा घंटा हंस लें</span>,
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">श्रोता
इतना अच्छा कि एक गजल क्या पूरी किताब इसे सुना दें बंदा पूरी तन्मयता से आखिरी
लाइन तक आपके सामने सिर झुकाए सुनता रहेगा। रोडरेज का केस हो तो आपका गधा खुद ब
खुद दुलत्ती झाडकर आपके विरोधी पक्ष का मान मर्दन कर देगा</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">डीएल-आरसी आपसे
कोई मांगेगा नहीं</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">प्रदूषण नियंत्रण चेक करने वालों का मुंह यह
अपनी दुलत्ती से प्रदूषित करके बंद कर देगा। बाद में इटली की एक कंपनी इन्नोसेंटी
ने भी इसी से प्रेरित होकर लंब्रेटा नामक एक स्कूटर मार्केट में उतारा था जिसकी
नकल करके बजाज बाबू ने चेतक इत्यादि</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इत्यादि मॉडल बनाए। भारत सरकार ने गधों
से प्रेरित होकर लंब्रेटा बनाने वाली कंपनी खरीदी</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">उसे स्कूटर
इंडिया लिमिटेड नाम दिया और माल व सवारी ढोने के लिए आधुनिक व मशीनी गधों का
निर्माण किया जिन्हें हम और आप आज ‘विक्रम’ नाम से जानते हैं। </span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">एक किंवदंती है कि सम्राट विक्रमादित्य
के भाई गंधर्वसेन किसी श्राप के कारण दिन में गधा और रात में मनुष्य बनकर रहते थे।
खैर श्राप देने वाले ने उनपर बड़ी कृपा की वरना मामला उलटा हो गया होता तो व्यर्थ
ही बेचारे का तलाक हो जाता। वैसे इतिहास के एक मौलिक जानकार का कहना है कि दरअसल
गंधर्वसेन किसी प्राइवेट कंपनी के इंप्लाई हो गए होंगे जहां दिन भर गधे की तरह काम
करते होंगे और ऑफिस से छूटते ही थके-मांदे मनुष्य के रूप में घर पहुंच जाते होंगे।
मामले को दबाने के लिए कथाकारों ने इस तथ्य को बदल दिया और प्राइवेट कंपनी की जॉब
को श्राप के रूप में चर्चित कर दिया।</span><br />
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;"><br /></span></div>
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">अगर आप ठोस इतिहास में अधिक भरोसा करते
हैं तो आपको यह जानकर खुशी होगी कि कुछ समय पहले कुछ अमेरिकी विशेषज्ञ इजिप्ट में
एक शाही कब्रिस्तान की खुदाई कर रहे थे। वहां उन्हें पांच हजार साल पुराने </span>10<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">
गधों के कंकाल मिले। विद्वानों का कहना है कि इन गधों को ऐसे दफनाया गया है मानो
ये कोई आला अधिकारी रहे हों। इसका क्या मतलब है इस पर इन विद्वानों ने ज्यादा
खुलकर नहीं लिखा है। हो सकता है कि इन गधों के साथ इनके ब्रीफकेस</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बोर्ड
मीटिंग में उठाए जाने वाले जरूरी पॉइंट्स की लिस्ट और शैंपेन की बोतलें वगैरह भी
मिली हों। </span></div>
<br />
<div class="MsoNormal" style="text-align: justify;">
<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इस पूरी चर्चा के बाद हमारे दिमाग में
दो बातें उठती हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे पूर्वज बंदर ना होकर गधे रहे हों।
मैं अपने नहीं सभी मनुष्यों की बात कर रहा हूं। दूसरी बात यह है कि गधों की
ईमानदारी</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">स्वामिभक्ति (सुब्रमण्यम स्वामी नहीं) की इतनी चर्चा से कुत्ते
डिमॉरलाइज हो सकते हैं। आखिर कुत्तों को इंसान का सबसे बेहतरीन और वफादार दोस्त
कहा गया है। ऐसे में ज्यादा नहीं तो कम से कम </span>12 <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">बरस में एक बार
ही सही </span>‘<span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">चाय पर चर्चा</span>‘ <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">की तर्ज पर कुत्तों पर भी चर्चा होती
रहनी चाहिए। अंत में हम फिर गुजराती गधों पर आते हैं जहां से पूरी बहस शुरू हुई
थी। हमारे एक मित्र जो डोनेशन के दम पर किसी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में पढ़ने के
लिए गुजरात गए थे</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">ने एक रोचक बात बताई। उनका कहना था कि वहां गधे
बहुत ज्यादा हैं</span>, <span lang="HI" style="font-family: "mangal" , "serif"; line-height: 115%;">इसलिए गधों की तादाद कम करने के लिए लोगों ने
एक अनोखा तरीका खोज निकाला है। वहां नर गधों को इकट्ठा करके मादा गधों से बहुत दूर
किसी इलाके में छोड़ दिया जाता है। इन लाइनों के लिखे जाने के समय मुझे लग रहा है कि
यह समाधान अनोखा होने के साथ काफी बेरहम है और गधे आमतौर पर शायद इसीलिए उदास से
दिखाई देते हैं।</span></div>
</div>
</div>
आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-28003435611989662412014-03-24T11:06:00.001+05:302014-03-24T11:10:17.649+05:30अगले जनम मोहे बेटा न कीजो <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
‘अवतार पयंबर जनती है, फिर भी शैतान की बेटी है...’ औरत की हालत पर साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था। ये लाइनें मैं बचपन से सुनता आया हूं और यह सवाल भी खुद से पूछता रहा हूं। पिछले तीन महीनों से एक अजीब-सी आग में जल रहा है दिल-दिमाग। उस आग की आंच में बाकी सारे विचार खाक हो गए, एक अक्षर भी नहीं लिख सका।<br />
<br />
इसकी शुरुआत तीन महीने पहले हुई जब ऑफिस में अपनी सीनियर और साथ काम करने वाली दोस्त से एक जुमला सुना - लड़के/मर्द कमीने होते हैं। इतनी साफ गाली मैंने कभी नहीं सुनी थी। सो जोर देकर पूछा, मैडम, आपको क्या लगता है, क्या मैं भी, हमारे पिता-भाई सभी मर्द कमीने हैं? उन्होंने मेरा दिल बहलाने को भी पलकें नहीं झपकाईं। याद आया, जब बहनों की समस्याएं समझने, उन्हें सीख देने की कोशिश करता था तो अक्सर सुनना पड़ता था, आप नहीं समझोगे भइया, आप लड़के हो। यहां भी वही डायलॉग- तुम नहीं समझोगे...।<br />
<br />
क्यों नहीं समझूंगा मैं, दूसरे ग्रह से आया हूं? इसी समाज में पला-बढ़ा हूं। बहरहाल, बहस करने की जगह मैंने ठान लिया, आज से खुद को महिला या लड़की समझकर अपने माहौल को आंकने की कोशिश करूंगा। इन तीन महीनों में ही मैं यह कहने को मजबूर हो गया- मर्द वाकई कमीने होते हैं, कुत्ते नहीं बल्कि भेड़िए। हां, इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन अपनी मां, बहनों, बेटियों और दोस्तों की सलामती के लिए यही कहूंगा कि जब तक हालात नहीं बदलते, मुझ पर भी भरोसा मत करना।<br />
<br />
इन तीन महीनों में देखा, हम मर्दों की दुनिया औरत के शरीर के इर्द-गिर्द घूमती है। हमारे चुटकुले, हमारी कुंठाएं, गॉसिप, हमारे बाजार यहां तक कि हमारी खबरें भी। हम इस हद तक निर्मम और संवेदनाहीन हो चुके हैं कि जिस शरीर से जन्म लिया, जब वही शरीर जीवन के अंकुरण की प्रक्रिया से हर महीने गुजरता है तो उस दर्द का भी मजाक उड़ाने में नहीं हिचकते। मर्दों के लिए कमीने से भी गई-गुजरी गाली ढूंढनी पड़ेगी। किसी उम्र, पद, तबका, रंग, नस्ल, हैसियत का मर्द हो, इसका अपवाद नहीं। इन तीन महीनों में मुझे लगा कि मैं नरभक्षी राक्षसों के बीच जी रहा हूं, अगर इनके बीच सारी उम्र काटनी पड़ती तो...? कांप उठता हूं। हां, हम दोगले भी हैं, जैसे ही कोई लड़की अगल-बगल दिखती थी, हममें से कुछ तो शालीनता की चादर ओढ़ लेते, कुछ को तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता था।<br />
<br />
इस दौरान मैंने हमें जनम देने वाली ‘शैतान की बेटी’ को और करीब से जानने की कोशिश की। दिल्ली एक बेरहम महानगर है, लेकिन सुबह 4:30 से रात 2:30 बजे तक मैंने इन्हें बेखौफ अंदाज में, खिलखिलाते, अपनी तन्मयता में अपनी-अपनी राह जाते देखा। इनमें से कई छोटे शहरों से या गांवों से आईं थीं, अधिकतर अकेली। कुछ परिवारों के साथ रहते हुए भी निपट अकेली थीं। लेकिन एक बात सभी में समान थी, सब अपने-अपने कंधों पर एक बोझ उठाए थीं, मां-बाप से यह कहतीं - हम अपने भाइयों से कहीं भी कम नहीं, तुमने एक लड़के की चाह में हमें नामुराद की तरह इस दुनिया में ढकेल दिया। हमारे पैदा होने पर खुशी तो दूर, नवजात शरीर को ढंकने के लिए साफ, नए कपड़े तक नहीं मिल सके। तब शायद हम यही सोचकर जिंदा रहे कि एक दिन तुम्हें बता सकें कि हम तुम्हारे वंश को बढ़ाने वाले लड़के से किसी सूरत में पीछे नहीं हैं। लेकिन वह यह कह रही थीं बिना किसी विज्ञापन के, किसी मौन योद्धा की तरह।<br />
<br />
मैंने देखा हर बार मर्दों की खड़ी दीवार ने इनके कद को और बढ़ा दिया है। एक और अजीब बात, मैंने हर लड़की को जिंदगी का एक-एक पल बिंदास होकर जीते देखा, वजह ... उन्हें पता नहीं कि अगले पल उनकी जिंदगी का क्या होगा। इसी सबके दौरान वे अपने सपने, शौक और जुनून को जिंदा रखे हुए थीं। कमरतोड़ 10 घंटों की नौकरी के बाद अगले 10 घंटे एक पैर पर खड़े-खड़े बिता देतीं, महज इसलिए कि... वह उन्हें रूटीन से आजादी देता है, पल भर के लिए हवा के ताजा झोंके की तरह। इस सबके मूल में यह था, कल को पता नहीं किसके पल्ले बंधना पड़े, न जाने कौन पर कतर दे। अब जा कर पता लगा कि मर्दों की जिंदगी तो 60, 70, 80 बरस की होती है, लेकिन इन लड़कियों की जिंदगी बस 25-26 तक। यानी तब तक जब तक गृहस्थी की उम्रकैद नहीं शुरू हो जाती। चौंक गए, हमारी-आपकी मांएं इसी गृहस्थी की चारदीवारी में बंद कैदी हैं। वे भूल गई हैं, इसके बाहर भी दुनिया बसती है। उन्हें जरा इस लोहे के फाटक से बाहर खड़ा करके तो देखिए, अबोध बच्चे की तरह लडख़ड़ा कर बैठ जाएंगी, मुमकिन है खुद लौटकर इसी जेल का दरवाजा खटखटाकर अंदर आने की गुहार लगाएं।<br />
<br />
इस अंतराल में एक और ख्याल आया कि यह पूरी दुनिया मर्दपरस्त है, हमारी साइंस, मेडिकल जगत भी। एक दिन बस से जा रहा था, अचानक किसी खिड़की के पास से आवाज आई, इन्हें हमारी चिंता होती तो जैसे कॉन्डम वेंडिंग मशीन लगाई, वैसे ही सेनेटरी नैपकिन की वेंडिंग मशीन न लगा देते। मैं सन्न रह गया, सूरज की रोशनी में चमकता हुआ एक माथा, कच्चे दूध सी पवित्रता लिए भोली-सी आंखें यह सवाल पूछ रही थीं। सच है, यह ख्याल हम मर्दों को क्यों नहीं आया? शायद हर महीने मर्दों को यह तकलीफ झेलनी होती तो शायद साइंटिस्टों की पूरी जमात चांद पर पानी बाद में खोजती, सबसे पहले इस दर्द को कम करने में जुट जाती। चूंकि मर्द को दर्द नहीं होता, इसलिए औरत का शरीर नरक का द्वार है कह कर छुटकारा पा लेता है।<br />
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उफ्फ, कैसे इतनी दीवारें खींच लीं हमने। मर्द-औरत अलग-अलग ग्रहों से नहीं आए हैं। फिर यह अविश्वास क्यों? मुझे तो लगता है, मर्द डरे हुए हैं औरतों से, मौन रहकर दर्द सहने की उसकी क्षमता से, अपने जीवन की बाजी लगाकर एक नई जिंदगी को इस दुनिया में लाने की ताकत से। इंद्र का भी सिंहासन कांप उठा होगा कि कहीं कोई औरत न उस पर काबिज हो जाए। तबसे ही पैदा होते ही लड़की को एक झूठे प्रचार का सामना करना पड़ता है, प्रोपैगंडा का सामना करना पड़ता है, उसे समझाया जाता है कि वह कितनी अबला और असुरक्षित है। खैर...<br />
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पर मेरा तर्क फिर सिर उठाता है - दोस्त, सभी मर्द, लड़के एक जैसे नहीं होते। देखो, मैं बिल्कुल वैसा नहीं हूं, क्योंकि मुझे तुमने ही गढ़ा है। मेरी मां, मेरी तीनों बहनों ने मुझे ऐसा बनाया है कि मैं इस दर्द को महसूस कर सकता हूं, फिर मुझे दोषियों की कतार में क्यों खड़ा कर देती हो? और... मेरे पापा भी वैसे नहीं हैं, अपने कुनबे में अफीम चटाकर मौत की नींद सुला दी जातीं लड़कियों को जिंदगी देने के लिए उन्होंने लड़कपन में ही जीतोड़ कोशिश की और कामयाबी भी पाई। मेरी एक बुआ को तो वह गांव के बाहर कचरे के ढेर से उठाकर लाए थे।<br />
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लेकिन लगता है कि हमारी जमात के अपराध इतने ज्यादा हैं कि विधाता से इतना ही कहना चाहता हूं, अगले जनम मोहे बिटुआ न कीजो, मुझे भी शैतान की बेटी ही बनाना ताकि मैं भी इस मौन संघर्ष का हिस्सा बन सकूं।<br />
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जाते-जाते एक बात और... साहिर लुधियानवी की मशहूर नज्म "औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया" को लता मंगेशकर ने साधना फिल्म के लिए गाया था। इस गाने को यूट्यूब पर सुनने के लिए । औरतों पर इतना बेहतरीन गीत एक महिला की आवाज़ में सुनकर शायद आपकी आंखों में भी आंसू आ जाएं। और यह सोचकर अच्छा लगता है कि यह गीत एक मर्द - साहिर लुधियानवी - ने लिखा था।</div>
आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-30059278923343263572008-07-05T12:59:00.000+05:302016-10-02T11:56:06.955+05:30अच्छा हुआ तुम मर गईं आरुषि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मैं एक प्रतिष्ठित दैनिक में काम करता हूँ। काम क्या करता हूँ, ख़बरों की लाशों को कालमों के ताबूत में दफ़न कर के उन पर हेड<span class=""> लाइंस की पट्टियाँ ठोंक देता हूँ। कफ़न के हिसाब से लाशों को कांट-छांट देता हूँ।</span><br />
<span class="">आरुषि... आरुषि... आरुषि। दो महीने हो गए, इस लड़की की ख़बर और उसकी लाश की फोटो आज भी सेलेबल है। पन्ना हो या स्क्रीन। लेकिन अभी परसों शाम बड़ा झटका लगा मुझे। नेट पर एक तस्वीर आरुषि के मर्डर से जुड़ी दिखाई दी। 'एक्सक्लूसिव' तस्वीर। खून के छींटे, बिखरे बाल, बेजान हाथ... दोबारा उधर नज़र नहीं गई।</span><br />
<span class="">मेरे एक अज़ीज़ सहकर्मी की निगाह उस पर पड़ी तो वे व्याकुल हो उठे। आप ग़लत समझे... । शब्दों को फ़िर से पढ़िये। उन्हें यह तस्वीर चाहिए थी। वह उसका प्रिंट लेना चाहते थे। मैंने उनके चेहरे की तरफ़ देखा, उनकी आंखों में ऐसी विद्रूप चमक थी, जिसे समझ कर भी मैं समझना नही चाहता था। उन्हें बेजान शरीर और खून के धब्बे नहीं लाश का उघड़ा हुआ शरीर नज़र आ रहा था। मैंने अपने चारों ओर देखा तो लगा हम सभी के आस्तीनों पर आरुषि का खून है। </span><br />
<span class="">सच मानिये बड़ी तसल्ली हुई की आरुषि मर गई। मन ने कहा काश अपना शरीर भी साथ ले जाती। ... अगर जिंदा रहती तो हम भेडियों की भीड़ से कब तक बचती आरुषि? इसी तरह गोवा बीच पर पाई गई स्कारलेट कीलिंग की लाश भी लोगों को खुश करती रही।</span><br />
<span class="">हम खबरें बनाते हैं, पढ़ते हैं, स्क्रीन पर बहस करते हैं, हत्यारों, दरिंदों को पकड़ने की बात करते हैं। लेकिन... डेस्क से उठते ही, कैमरा ऑफ़ होते ही दरिंदों की इसी भीड़ में शामिल हो जाते हैं। रोज चिंता जताई जाती है। स्त्री-पुरूष अनुपात बिगड़ रहा है। सच है, औरत, हम<span class=""> नहीं </span>चाहते तुम मरो, तुम्हे मरने का कोई हक़ नहीं है। तुम्हे तो यातना शरीर मिलना चाहिए ताकि तुम अनंतकाल तक जियो, और तुम्हें रौंद कर हम खुश होते रहें।</span><br />
<span class="">मन कहता है, अगर यह संतुलन बिगड़ रहा है तो कम से कम हैवानों की बढती नस्ल में कुछ कमी तो आएगी। माँ, अब तुम अवतार और पैगम्बरों को जन्म नही दे रही हो। </span><br />
<span class="">बस, इसीलिए राहत होती है आरुषि की तुम चली गईं, पर बेहतर होता अपना शरीर भी लेती जातीं। हम इसकी भी कद्र नहीं कर पा रहे हैं। </span></div>
आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-90453151300415359772008-06-26T20:32:00.000+05:302008-07-03T11:10:08.572+05:30बावफ़ा मौत (समग्र)<span style="font-size:130%;">जिंदगी से ज्यादा बेवफा कुछ भी नहीं,<br /><span class="">जिंदगी भर जिंदगी भागती है</span><br /><span class="">आगे-आगे,</span><br /><span class="">पीछे-पीछे हाथ फैलाये हम।</span><br /><span class="">लेकिन सब्र किए</span><br /><span class="">हर एक कदम पर</span><br /><span class="">हमारे पीछे-पीछे चलती रहती है</span><br /><span class="">मौत। </span><br /><span class="">मौत, जिससे बचते फिरते हैं हम,</span><br /><span class="">दौड़ते हैं जिंदगी की छाया के पीछे। </span></span><br /><span style="font-size:130%;">वहीँ मौत पूरे इत्मिनान से </span><br /><span style="font-size:130%;">एक-एक साँस का हिसाब रखती है।</span><br /><span style="font-size:130%;">.....</span><br /><span style="font-size:130%;">जब दोनों कोहनियों के बीच</span><br /><span style="font-size:130%;">सर को छुपाये हम</span><br /><span style="font-size:130%;">एक-एक उजडती </span><span style="font-size:130%;">साँस को </span><br /><span style="font-size:130%;">टूटे हुए शरीर में रोपने की </span><br /><span style="font-size:130%;">नामुमकिन कोशिश करते हैं,</span><br /><span style="font-size:130%;">तब भी हमारी इस जीतोड़ कोशिश पर</span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">कोने में खड़ी मौत </span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">मुस्कुराती है।</span></span><br /><span style="font-size:130%;">.....</span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">जब सारी दुनिया मगन है जिंदगी के</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">छलावे, राग- रंग में</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">तब टूटे हुए शरीर और</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">थमती साँसों के अकेलेपन की </span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">एकमात्र साथिन है</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">मौत।</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">वह बहुत नज़दीक रहती है</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">हाथ बढ़ा कर छू सकते हैं उसे हम,</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">लेकिन डरते हैं...</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">मौत से, उसकी निश्चितता से</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">और अनिश्चिततापूर्ण जिंदगी की तरफ़</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">भागते हैं अँधाधुंध।</span></span><br /><span style="font-size:130%;">.......</span><br /><span style="font-size:130%;"><span class=""><span class="">क्यों न</span> पीछे पलट<span class=""> कर </span></span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class=""></span></span><span style="font-size:130%;"><span class=""><span class="">हाथ पकड़ लें इस इस डर का,</span> </span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">मौत का।</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">जीत लें दिल मौत का</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">और फ़िर दोनों मिल कर</span></span><br /><span style="font-size:130%;"><span class="">जियें जिंदगी को, पीछा करें जिंदगी का बेखौफ। </span></span><br /><br /><span style="font-size:130%;"><span class=""></span></span>आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-33753206562425160792008-06-26T19:54:00.000+05:302008-06-28T14:12:41.549+05:30बेकुसूर मौत<span style="font-size:130%;">जिंदगी<br />अपने नुकीले दांतों में फंसे<br />हमारे शरीर को<br /><span class="">कुचल-कुचल कर,</span><br /><span class="">स्वाद ले-ले कर </span><br /><span class="">चबाती है</span><br /><span class="">अन्तिम साँस तक।</span><br />फिर...<br /><span class="">उगल देती है बेजान लाश</span><br /><span class="">और...हम</span><br /><span class="">सारा दोष मढ़ देते हैं</span><br /><span class="">मौत के माथे। </span></span>आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-64158776151694649482008-06-25T13:50:00.000+05:302016-10-02T11:56:27.200+05:30आँखों में चुभता अँधेरा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="font-size: 130%;">पिछले रविवार से अजीब से घटनाओं की सुरंग से गुजर रहा हूँ। चरों तरफ़ घना काला अँधेरा छाया है। घटनाएँ घट रही हैं, कुछ पुराने रंग चढ़ रहे हैं कुछ उतर रहे हैं। एक हमजाये का दर्द महसूस करने की कोशिश कर रहा हूँ। दवा तो नही ला सकता इसलिए ख़ुद दर्द की डगर पर साथ चलने की छोटी सी कोशिश भर कर रहा हूँ। चूंकि अभी घना घटाटोप अँधेरा है इसलिए आप सब के साथ कुछ ज्यादा नहीं बाँट सकता। कुछ नज़र आते ही ज़रूर आपका सहारा लूँगा।</span></div>
आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8594132425875670673.post-9617327312661675672008-06-21T13:33:00.000+05:302008-06-28T14:10:59.997+05:30दुनिया<span style="font-size:130%;">ये दुनिया छोटी होते-होते<br />इतनी बड़ी हो गई है कि,<br /><span class="">किसी को देखने के लिए तरसा करें उम्र भर,</span><br /><span class="">इसके लिए ज़रूरी नहीं कि वह इस जहाँ से चला जाए, </span><br /><span class="">आज कल तो सिर्फ़ कमरे भर बदल लेना ही काफी होता है। </span></span>आलोक सिंह भदौरियाhttp://www.blogger.com/profile/17299039079905824087noreply@blogger.com0