Thursday 26 June 2008

बावफ़ा मौत (समग्र)

जिंदगी से ज्यादा बेवफा कुछ भी नहीं,
जिंदगी भर जिंदगी भागती है
आगे-आगे,
पीछे-पीछे हाथ फैलाये हम।
लेकिन सब्र किए
हर एक कदम पर
हमारे पीछे-पीछे चलती रहती है
मौत।
मौत, जिससे बचते फिरते हैं हम,
दौड़ते हैं जिंदगी की छाया के पीछे।

वहीँ मौत पूरे इत्मिनान से
एक-एक साँस का हिसाब रखती है।
.....
जब दोनों कोहनियों के बीच
सर को छुपाये हम
एक-एक उजडती साँस को
टूटे हुए शरीर में रोपने की
नामुमकिन कोशिश करते हैं,
तब भी हमारी इस जीतोड़ कोशिश पर
कोने में खड़ी मौत
मुस्कुराती है।
.....
जब सारी दुनिया मगन है जिंदगी के
छलावे, राग- रंग में
तब टूटे हुए शरीर और
थमती साँसों के अकेलेपन की
एकमात्र साथिन है
मौत।
वह बहुत नज़दीक रहती है
हाथ बढ़ा कर छू सकते हैं उसे हम,
लेकिन डरते हैं...
मौत से, उसकी निश्चितता से
और अनिश्चिततापूर्ण जिंदगी की तरफ़
भागते हैं अँधाधुंध।
.......
क्यों न पीछे पलट कर
हाथ पकड़ लें इस इस डर का,
मौत का।
जीत लें दिल मौत का
और फ़िर दोनों मिल कर
जियें जिंदगी को, पीछा करें जिंदगी का बेखौफ।

4 comments:

Dr Mandhata Singh said...

भाई साहब आपका ब्लाग देखा और पढ़ा। जीवन को देखने और जीने का यह सूफी नजरिया अच्छा लगा।

Amit K Sagar said...

अच्छी रचना. नज़रिए ने कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया तुमको...कहाँ हो अभी तुम! क्या ख़बर है तुमको!?
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उम्दा. लिखते रहिए. शुक्रिया -शुभकामनायें.
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उल्टा तीर

admin said...

बहुत कम शब्दों में आपने जिन्दगी की सच्चाई को बयान कर दिया है, मुबारकबाद स्वीकारें।
कृपया कमेंट बाक्स से वर्ड वेरीफिकेशन हटा दें, इससे इरीटेशन होती है।

Raji Chandrasekhar said...

स्वागत हैं आप का ।
मैं केरल का एक ब्लोगर, मलयलम मैं और थोड़ा थोड़ा हिन्दी में भी ब्लोग्ता हूँ ।

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